भक्त गरीब हो सकता है दरिद्र नही-बाल विदुषी लाड़ली शरण जी

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जरीडीह(बेरमो)जरीडीह बाजार में चल रहे सात दिवसीय संगीतमय श्री मद्भागवत कथा का सातवां दिन तेनुघाट के एस डी ओ अनन्त कुमार एवं मुख्य यजमान मदन मोहन अग्रवाल एवं श्री मति रेणुका अग्रवाल के द्वारा दीप प्रज्वलन, पूजन,आरती के पश्चात वृन्दावन धाम से पधारी सुविख्यात राष्ट्रीय सरस् प्रवक्ता बाल विदुषी लाड़ली शरण जी ने भक्तों को सम्बोधित करते हुवे कहा- सुदामा   जी   ठाकुर   जी   के   परम   मित्र   एवं   बचपन सखा   थे।

सुदामा   जी   ब्रहमज्ञानी विषयों  से विरक्त , भान्तिचित्त और जितेन्द्रीय   थे। परन्तु वे  इतने ज्यादा गरीब   थे कि घर में खाने का एक दाना तक नहीं होता था। कई बार तो भूखा ही सोना पड़ता था  परन्तु गरीब होते   हुए  भी  सुदामा   दरिद्र   नहीं   थे   लोग सोचते है  कि जो   गरीब   होते है वे दरिद्र होते है परन्तु गुरूदेव जी कहते है  नहीं ! नहीं !  दरिद्रता एवं निर्धनता में   अन्तर   है। ठाकुर जी भक्त गरीब हो सकता है पर दरिद्र नहीं हो सकता।   क्योंकि   दरिद्र   व्यक्ति   वो   है   जिसके   पास   सब   कुछ   हो   लेकिन   संतोष   न   हो।


शास्त्र की दृष्टि में दरिद्र वही है जिसके मन में सब कुछ होने पर भी सन्तोष नहीं है।  सुदामा जी को एक  वक्त का  भोजन भी ठीक से प्राप्त नहीं हो पाता था। घर में  दीवार तो है  पर  छत का ठिकाना नहीं है।   घर में  टूटे   फूटे   पात्र  थे। सुदामा जी 3-3 दिन तक अपनी  पत्नी  के  साथ  भूखे  रहते थे। लेकिन  कभी   भी   ठाकुर   जी   से   किायत   नहीं   की।   सुदामा   जी   की   पत्नी   का   नाम सुशीला  था।  सुशीला  का  जैसा  नाम वैसा ही प्रभाव  भी था। सुशीला  कभी   भी अपने  पति से गरीबी की शिकायत  नहीं करती थी। दिन सुशीला ने  सुदामा से कहा  – महाराज  घर में  बच्चे भूखे हैं  खाने को  एक  भी दाना नहीं है। मै।  इनका  पालन पोषण कैसे  करूं। मैने   सुना  है कि  द्वारिकाधीश श्री  कृष्ण आपके परम  मित्र  और बचपन के सखा  है  और वो आपसे बहुत स्नेह करते  हैं। आप   कहते   है   कि   मेरा   मित्र   द्वारिका   का   राजा   है।   तो   आप   अपने   मित्र   के   द्वार   पर   मांगने   क्यों   नहीं   चले   जाते।सुदामा   जी   ने   कहा  सुशीला मर जाऊंगा  लेकिन मांगने नहीं   जाऊंगा   कैसे   जाऊ ?  वो   मेरा   मित्र   है।

सुशीला  ने   कहा   चलो   ठीक   है आप अपने  मित्र से  कुछ  मांगने मत  जाओ  पर दान तो कर  आओ।  अपने बचपन के  मित्र से एक बार मिल तो आओ।सुदामा जी कहते है ठीक है  सुशीला मैं  अपेन  मित्र   कन्हैया से  मिलने जरूर जाऊंगा लेकिन  घर में कुछ है जो अपने मित्र के पास   ले   जाऊं ?  जिसे अपने   मित्र  को   भेंट   स्वरूप  दे   सकू .सुशिला  ये जानती  थी   कि  घर मे  खाने के लिए एक दाना नहीं है। सारे पात्र खाली पड़े   है ,  लेकिन   फिर भी  रसोई   घर   में   गई   और चुपके से  घर से निकल और चार घर  गई और चार तरह  के चार मुट्ठी चावले लेकर आई।   सुदामा   जी   को   वो   चावल   एक   फटे   दुपट्टे   में   बांध दिए दुपट्टा इतना   ज्यादा फटा  था  कि चार   तह   करने   पर भी फटा   हुआ है  इतनी   गरीबी है।  चार की आठ  तह  करने   पर   उन्होने   उन   चावलों   की   मुट्ठी   को   जैसे   तैसे   लपेटा   और   सुदामा जी को   द्वारिका का राजा है और  मुझ जैसा  गरीब   से कन्हैया   ना   मिले।   लेकिन   गुरूदेव   जी   कहते   हैं भगवान की  दृष्टि  मे   पैसे काकोई   महत्व   नहीं   है।

धन   और   बल   का   कोई   महत्व   नहीं   है।   कोई   व्यक्ति   उंचे   ओहदे   पर   हो   उसका   कोई   महत्व   नहीं   है।   उनकी दृष्टि  में   तो   केवल   और   केवल   भाव   का   महत्व   है।बिना   भाव   रीझे   नहीं   नटवर   नंद   कि   डोरएक   बार   मन   मे   आया   कि   वापिस   लौट   चलूं   फिर   सोचते   है   नहीं   मेरे   प्रभू   तो   प्रेम   तो   प्रेम   की   मूर्ति   है।   मैं   उनसे   मिलकर   जाऊंगा   सुदामा   जी   को   चलते – फिरते  शाम  हो   गई   और   एक   पेड़   के   नीचे   बैठ   गए।   रात्रि   का   प्रहर   था   तो   भगवान   को   याद   करते – करते   सो   गए।   इधर   भगवान   भी   सुदामा   को   यार   कर   रहे   थे।गुरूदेव   जी   कहते   है   इस   बात   को   अच्छी   तरह   से   याद   रखना   अगर   तुम   अपने   आराध्य   को   याद   करते   हो   तो   भगवान   भी   एक   भक्त   की   याद   में   उतना   ही   रोता   है   जितना   एक   भक्त।

भगवान   ने   सोचा   मेरा   मित्र   थक   कर   सो   गया   है   और   गहरी   नींद   में   है।   भगवान   योग   माया   को   आज्ञा   दी  कि   तुम   जाओ   और   मेरे   मित्र   सुदामा   को   द्वारिका   में   पहुंचा   दो।   योग   माया   में   सुदामा   को   द्वारिका   मे   पहुंचा   दिया।
जब   सुबह   हुई   तो   सुदामा   जी   ने   देखा   चारों   तरफ   महल   ही   महल   हैं।   सुदामा   जी   सोचते   हैं   कि   हम   तो   एक   पेड़   के   नीचे   सोये   थे   तो   यहां   कैसे   पहुंच   गए ? सुदामा   जी   ने   राहगीर   से   पूछा   कि   भैया   ये   कौन   सा   नगर   है   तो   लोगों   ने   कहा   ये   द्वारिका   है।   सुदामा   जी   ने   पूछा   अगर   ये   द्वारिका   है   तो   भैया   हमारे   कन्हैया   का   मकान   कौन   सा   है ?

वो   बोला   कि   ये   सब   महल   आपके   मित्र   कृष्ण  के   है।  सुदामा   जी   महाराज   महल   के   दरवाजे   पर   पहुंचे   है।   द्वारपालों   में  अंदर   जाने   पर   रोक   दिया।   अरे   ब्राहमण !  आप   कौन   हो ?  कहां   से  आये हो ?  और   कहां जाओगे ?
सुदामा   जी   कहते   है   भैया   आप   अन्दर   जाकर  कृष्ण  से केवल इतना कह देन  कि  तेरा बचपन   का   मित्र   सुदामा   मिलने   आया   है।   मेरा   कन्हैया   सब   कुछ   समझ   जायेगा   प्यारे   मेरे   कन्हैया   को   ज्यादा   बताने   की आवश्यकता नहीं   है श्रीकृष्ण  को द्वारपाल आकर उन्हें बताता   है कि द्वार पर बिना पगड़ी , बिना   जूतों   के ,   एक   कमज़ोर   आदमी   फटी   सी   धोती   पहने   खड़ा   है।   वो   आश्चर्य   से   द्वारका   को   देख   रहा   है   और   अपना   नाम   सुदामा   बताते   हुए   आपका   पता   पूछ   रहा   है।द्वारपाल   के   मुँह   से   सुदामा   के   आने   का   ज़िक्र   सुनते   ही   श्रीकृष्ण   दौड़कर   उन्हें   लेने   जाते   हैं।

 

उनके   पैरों   के   छाले ,   घाव   और   उनमें   चुभे   कांटे   देखकर   श्रीकृष्ण   को   कष्ट   होता   है ,   वो   कहते   हैं   कि   मित्र   तुमने   बड़े   दुखों   में   जीवन   व्यतीत   किया   है।   तुम   इतने   समय   मुझसे   मिलने   क्यों   नहीं   आ ,   सुदामा   जी   की   दयनीय   दशा   देखकर   श्रीकृष्ण   रो   पड़ते   हैं   और   पानी   की   परात   को   छुए   बिना ,   अपने   आंसुओं   से   सुदामा   जी   के   पैर   धो   देते   हैं।सुदामा   जी   की   अच्छी   आवभगत   करने   के   बाद   कान्हा   उनसे   मजाक   करने   लगते   हैं।

 

वो   सुदामा   जी   से   कहते   हैं   कि   ज़रूर   भाभी   ने   मेरे   लिए   कुछ   भेजा   होगा ,   तुम   उसे   मुझे   दे   क्यों   नहीं   रहे हो तुम   अभी   तक   सुधरे   नहीं।   जैसे ,   बचपन   में   जब   गुरुमाता   ने   हमें   चने   दिए   थे ,   तो   तुम   तब   भी   चुपके   से   मेरे  चने खा गए थे ,भगवान श्री कृष्ण खाने लगे।बहुत सुंदर आवभगत हुई ।

सुदामा जी   सोचते   हैं   कि   मैं   मदद   की   उम्मीद   लेकर   श्रीकृष्ण   के   पास   आया ,   लेकिन   श्रीकृष्ण   ने   तो   मेरी   कोई   मदद   ही   नहीं   की।   लौटते   समय   निराश   और   खिन्न   सुदामा   जी   के   मन   में   कई   विचार   घूम   रहे   थे ,   वो   सोच   रहे   थे   कि   कृष्ण   को   समझना   किसी   के   वश   में   नहीं   है।   एक   तरफ   तो   उसने   मुझे   इतना   आदर . सम्मान   दिया ,   वहीं   दूसरी   तरफ   मुझे   बिना   कुछ   दिए   लौटा   दिया।

मैं   तो   यहां   आना   ही   नहीं   चाहता   है ,   वो   तो   मेरी   धर्मपत्नी   ने   मुझे   जबरदस्ती   द्वारका   भेज   दिया।   ये   कृष्ण   तो   खुद   बचपन   में   ज़रा . से   मक्खन   के   लिए   पूरे   गाँव   के   घरों   में   घूमता   था ,   इससे   मदद   की   आस   लगाना   ही   बेकार   था।
जब   सुदामा   अपने   गाँव   पहुंचते   हैं ,   तो   उन्हें   आसपास   सबकुछ   बदला . बदला   दिखता   है।   सामने   बड़े   महल ,   हाथी – घोड़े ,   गाजे – बाजे   आदि   देखकर   सुदामा   जी   सोचते   हैं   कि   कहीं   मैं   रास्ता   भटककर   फिर   से   द्वारका   नगरी   तो   नहीं   आ   पहुंचा   हूँ मगर ,   थोड़ा   ध्यान   से   देखने   पर   वो   समझ   जाते   हैं   कि   ये   उनका   अपना   गाँव   ही   है।

 

फिर   उन्हें   अपनी   झोंपड़ी   की   चिंता   सताती   है वो बहुत  लोगों से  पछते हैं , जब सुदामाजी को श्रीकृष्ण की महिमा समझ आती   है ,   तो   वो   उनकी   महिमा   गाने   लगते   हैं। वो  सोचते   हैं   कि   कहाँ   तो   मेरे   सिर   पर   टूटी   झोंपड़ी   थी ,   अब   सोने   का   महल   मेरे   सामने   खड़ा   है।   कहाँ तो मेरे पास पहनको जूते नहीं थेअब मेरेसामने हाथी की  सवारी  लेकर महावत खड़े हैं। कठोर   ज़मीन   की   जगह   मेरे   पास   नरम   बिस्तर   हैं।   पहले   मेरे   पास   दो   वक्त   खाने   को   चावल   भी   नहीं   होते   थे अब   मनचाहे   पकवान   हैं।   ये   सब   प्रभु   की   कृपा   से   ही   संभव   हुआ   है , उनकी   लीलाअपरम्पार  है।  संत  जन ,  गुरूजन उनके चरणजरूर धोन चाहिए। क्योंकि   संतो   के   चरणों में सब तीर्थ सब  धाम निवास   करते   हैं। उनके चरणों में बहुत भाक्ति   होती   है.व्यक्ति की   पूजा  उसके आचरण  से  ही क्योंकि चरणों  में   हम नमन करते  हैं और   चरणों में  ही आचरण होता जिसका आचरण  नहीं   उसकी क्या पूजा करना।

मेरे यार सुदामा रे बड़े दिनों में आया।अरे द्वारपालों कन्हैया से कह दो आदि भजनों पर लोग झूमते रहे।झांकी का सुंदर स्वरूप देखकर लोग मंत्रमुग्ध हो उठे। मुख्य यजमान मदन मोहन अग्रवाल जी को पुत्रों ने डिजिटल भागवत गीता प्रदान किया।चित्रकूट धाम से पधारे सुविख्यात राष्ट्रीय प्रखर प्रवक्ता युवा महन्त श्री श्री 108 स्वामी सीताराम शरण जी महाराज ने कहा-गुरू की कृपा और शिष्य की श्रद्धा रूपी दो पवित्र धाराओं का संगम ही दीक्षा है। यानी गुरू के आत्मदान और शिष्य के आत्मसमर्पण के मेल से ही दीक्षा संपन्न होती है।

दीक्षा के संबंध में गुरूगीता में लिखा है— गुरूमंत्रो मुखे यस्य तस्य सिद्धयन्ति नान्यथा। दीक्षया सर्वकर्माणि सिद्धयन्ति गुरूपुत्रके।। – गुरूगीता 2/131 अर्थात् जिसके मुख में गुरूमंत्र है, उसके सब कर्म सिद्ध होते हैं, दूसरे के नहीं, दीक्षा के कारण शिष्य के सर्वकार्य सिद्ध हो जाते है। गुरूदीक्षा एक सूक्ष्म आध्यात्मिक प्रयोग है। दीक्षा में शिष्यरूपी सामान्य पौधे पर गुरूरूपी श्रेष्ठ पौधे की कलम (टहनी) प्राणानुदान के रूप में स्थापित कर शिष्य को अनुपम लाभ पहुंचाया जाता है।

कलम की रक्षा करके उसे विकसित करने के लिए शिष्य को पुरूषार्थ करना पडता है। गुरू की सेवा के लिए शिष्य को अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरूषार्थ एवं धन का अंश उनके साçन्नध्य में रहने हेतु लगाना आवश्यक होता है। शिष्य अपनी श्रद्धा और संकल्प के सहारे गुरू के समर्थ व्यक्तित्व के साथ जुडता है। उधर गुरू को दीक्षा में अपना तप, पुण्य और प्राण यानी शक्तियां और सिद्धियां शिष्य को हस्तांतरित करनी पडती हैं और वह सत्प्रयोजनों के लिए शिष्य से श्रद्धा, विश्वास, समयदान, अंशदान की अपेक्षा करता है।

इस कार्यक्रम में मुख्य रूप से समाजसेवी सह अग्रवाल कल्याण महासभा के प्रदेश अध्यक्ष अनिल अग्रवाल सौरभ अग्रवाल, सुसील अग्रवाल,रेणुका अग्रवाल,संगीता अग्रवाल,सांभवी प्रिया,स्वेता गोयल भोलू चंद भगत समुंदर प्रसाद अजय भगत बृजेश शाह संगीता अग्रवाल अनु अग्रवाल रश्मि अग्रवाल सुमन अग्रवाल प्रणय अग्रवाल अनुराग अग्रवाल ऋषभ अग्रवाल तुषार अग्रवाल प्रियेश अग्रवाल सहित कई लोग उपस्थित रहे

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