सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने गुरुवार को पूछा कि क्या आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) की समस्याओं को आरक्षण के बजाय छात्रवृत्ति और शुल्क रियायतें प्रदान करने जैसे सकारात्मक उपायों के माध्यम से संबोधित किया जा सकता है। एक याचिका पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश यू यू ललित ने कहा कि आर्थिक पिछड़ापन अस्थाई है।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट में संविधान के 103वें संशोधन को चुनौती देने वाली याचिका दाखिल की गई थी। इस संशोधन के तहत ईडब्ल्यूएस श्रेणियों को 10% आरक्षण कोटा प्रदान किया गया था। भारत के मुख्य न्यायाधीश यू यू ललित ने पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ की अध्यक्षता करते हुए इस याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि पिछड़ापन एक ऐसी चीज है जो अस्थाई नहीं है, बल्कि कई पीढ़ियों और सदियों से चली आ रही है जबकि आर्थिक पिछड़ापन अस्थाई है।
सीजेआई ईडब्ल्यूएस श्रेणी के कुछ छात्रों की ओर से पेश अधिवक्ता विभा मखीजा की दलीलों का जवाब दे रहे थे, जिन्होंने कहा कि आरक्षण प्रदान करने के लिए एक मानदंड के रूप में आर्थिक स्थिति की संवैधानिक रूप से अनुमति है। संविधान के परिवर्तनकारी चरित्र की ओर इशारा करते हुए विभा मखीजा ने कहा कि इसके निर्माताओं ने कभी ऐसी स्थिति की कल्पना नहीं की होगी जहां जाति आरक्षण प्रदान करने का एकमात्र मानदंड हो।
बेंच में जस्टिस दिनेश माहेश्वरी, एस रवींद्र भट, बेला एम त्रिवेदी और जेबी पारदीवाला भी शामिल थे। संशोधन का बचाव करने वाले सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से न्यायमूर्ति रविंद्र भट ने कहा, “अनिश्चितता है। आप इसे लचीलापन कहते हैं लेकिन यह अनिश्चित है।” इसके जवाब में तुषार मेहता ने कहा कि सामाजिक पिछड़ेपन को भी संविधान में परिभाषित नहीं किया गया है।
तुषार मेहता ने कहा, “आयोग का गठन कर समस्या का समाधान किया जा सकता है। यह इलाज योग्य है। सरकार कमीशन ला सकती है। यदि कुछ राज्य उस अभ्यास के बिना ईडब्ल्यूएस लागू करते हैं, तो उस कार्यकारी कार्रवाई को चुनौती दी जा सकती है। दिशानिर्देशों की अनुपस्थिति संशोधन के चुनौती का आधार नहीं है।”
तुषार मेहता ने कहा कि 21वीं सदी में देश की प्रगति के दौरान आर्थिक कमजोरी भी अपने आप में सामाजिक प्रतिष्ठा का सूचक बन गई है। इस गणतंत्र का उद्देश्य सभी जातियों और वर्गों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के सभी क्षेत्रों में बेहतरी लाना है।